एक दिन कोलकाता के दक्षिणेश्वर मंदिर में कुछ साधु संन्यासी स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास सत्संग के लिए पहुँचे। एक सद्गृहस्थ स्वामीजी के सान्निध्य में रहकर पिछले काफी समय से साधना कर रहा था ।
स्वामीजी उसकी सादगी, निश्छलता और भक्ति भावना से बेहद प्रभावित थे | किसी साधु ने अचानक स्वामीजी से प्रश्न किया, ‘महाराज, सच्चा साधु कौन है? क्या साधु बनने के लिए गृहस्थ जीवन का परित्याग करना जरूरी है ??
यह प्रश्न सुनकर परमहंसजी ने अपनी बगल में बैठे हुए सफेद वस्त्रधारी उस गृहस्थ साधक की ओर संकेत करते हुए संन्यासियों से कहा, ‘इसे देखिए, यह परिवार के बीच रहते हुए भी सच्चा साधु है,
क्योंकि इसने अपना मन, प्राण और अंतरात्मा पूरी तरह ईश्वर को समर्पित कर दिए हैं। यह सदैव भगवान् का चिंतन करता है। यह बीमारों और वृद्धों में भगवान् के दर्शन कर उनकी सेवा करता है। मैं तो सदाचारी गृहस्थ को ही सबसे श्रेष्ठ संत मानता हूँ।’
परमहंसजी ने कहा, ‘साधु को कंचन और कामिनी से दूर रहना चाहिए। उसे प्रत्येक नारी में माता और बहन के दर्शन करने चाहिए। कल क्या खाऊँगा, क्या पहनूँगा – इसकी उसे तनिक भी चिंता नहीं करनी चाहिए जो साधु झाड़ फूँक करने में लग जाता है,
जो बीमारियाँ दूर करने और चमत्कार का दावा करने लगता है, उसका एक-न- एक दिन पतन अवश्य हो जाता है। घर छोड़कर साधु बनने वाले को भगवान् के भजन और सेवा परोपकार में ही रत रहना चाहिए।’